Thursday, September 6, 2012

रंगमंच का सूनापन -केशव सिंह

रंगमंच  का सूनापन -केशव सिंह 

श्री राम सेंटर -  मंचन   "30  days in september"  दर्शक क्षमता : 500  उपस्थिति  : 50-55
IIT दिल्ली प्रेक्षाग्रह - मंचन  "उस पार "    दर्शक क्षमता : 320  उपस्थिति  :80
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ये एक बानगी भर है उस उदासीनता की  जो वर्तमान में  रंगमंच के प्रति व्याप्त है . फिल्मों की रंगीन दुनिया में खोया समाज थिएटर की वास्तविकता को बिल्कुल भी पसंद नहीं करता . कभी रास रंग की हमजोली नौटंकी आज कल अश्लील हंसी ठिठोली बन कर  रह गयी है . किसी भी मंचित नाटक को देखने के लिए अब सिर्फ वृद्ध बुद्धिजीवी वर्ग ही आता है . IIT दिल्ली में "उस पार " नाटक का मंचन चल रहा था . अपनी स्वर्गवासी पत्नी की याद में कवि प्रेम  और वियोग दोनों से भरी कविता लिख रहा था . वो ये मानने को तैयार नहीं था कि उसकी प्रियतमा उसके पास नहीं है . आह ..ऐसा हृदय विदारक दृश्य और अचानक पीछे की पंक्ति में बैठे कुछ लड़के सीटियाँ मारने लगे . धन्य है वो अधेड़ उम्र का साहित्य प्रेमी जो तुरन्त  उठ खड़ा हुआ और पीछे बैठे हुल्ल्ड्बाजों को जमकर लताड़ लगायी . खैर थोड़े विलम्ब के बाद नाटक फिर शुरू हुआ और धीरे धीरे वहां से लोग खिसकते रहे और मैं वहीं बैठा ये सोचता रहा कि वास्तव में हम कहाँ जा रहे हैं ? कवि कि उस प्रेमिका की  तरह हमारी सोच , सभ्यता और संस्कृति हमसे दूर जा चुकी है ..शायद उस पार ....
नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के प्रेक्षाग्रह में नाटक के समापन के बाद मैंने दो बच्चों  को आपस में बात करते हुये सुना कि - "वैसे तो अच्छा था पर आज दादा जी यहाँ ले आये इसलिए एक था टायगर का प्लान चौपट हो गया ".
गलती इनकी नहीं है . गलती उनकी है जिन्होंने इन्हें ये नहीं सिखाया कि थियेटर और सिनेमा में अंतर है . और कोई बताये भी क्यों ? क्यूँकि जिसे कुछ आता है वो दूसरों को कुछ बताने की जरुरत नहीं समझता . जादूगर कभी अपना जादू नहीं बताता , दूध वाला कभी ये नहीं बताता की वो दूध को ज्यादा कैसे करता है . पर अब जरुरत है कि कुछ बताया जाये . बच्चों को कुछ सिखाया जाए . उन्हें रंगीन दुनिया से निकाल कर यथार्थ के मंच पर खड़ा किया जाए .हाँ अब सच में इसकी बहुत जरुरत है ..